दीपावली 2023

दीपावली पांच पर्वों का महोत्सव है-

इस वर्ष 29 अक्तूबर 2013 के दिन से कार्तिक मास आरम्भ हो चुका है, तथा 12 नवम्बर 2013 के दिन दीपोत्सव पर्व है। दीपावली वस्तुतः पाँच पर्वों का महोत्सव माना जाता है, जिसका आरम्भ कार्तिक कृष्ण त्र्योदशी (धनतेरस) से आरम्भ होकर कार्तिक शुक्ल द्वितीया (भाई-दूज) तक रहती है। दीपावली के पर्व पर धन की प्रभूत प्राप्ति के लिए धन की अधिष्ठात्री धनदा भगवती लक्ष्मी का समारोह पूर्वक आवाहन, षोडशोपचार सहित पूजा की जाती है। युगों-युगों से भारत की धरती पर कार्तिक मास का बहुत धार्मिक महत्व है, माना जाता रहा है, और पुराणों में कहा गया है कि, जिस घर की गृहलक्ष्मी कार्तिक के महीने में प्रतिदिन संध्या के दोनो समय भगवान हरि के स्थान, धर्मस्थल (मंदिर) में, तीर्थ-स्थान में, यमराज, प्रजापति तथा पितरों के नाम से तिल के तेल का खुले आकाश में दीपक (आकाशदीप) जलाती हैं, उसके घर में अक्ष्यलक्ष्मी, तथा सौभाग्य व संपत्ति का भंडार सदा भरा रहता है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या पर्व को, (जो दीपावली के नाम से प्रसिद्ध है, तथा कार्तिक माह का एक विशिष्ट उत्सव है)। नारद जी के वचनानुसार इस उत्सव को द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या व प्रतिपदा (पांच दिन) तक निरंतर मनाना चाहिये, जिसका क्रम इस प्रकार है-

क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्ध्यं नमो नमः।।

अमृतमंथन के समय क्षीर सागर से उत्पन्न हुई, देवताओं तथा असुरों द्वारा नमस्कृत, सर्वदेव स्वरूपिणी माता। मेरे द्वारा प्रदान किये हुए इस अर्ध्य को स्वीकार करें। तुम्हें बार-बार नमस्कार है। अनंतर गौ को उड़द के बड़े खिलावें और इस प्रकार प्रार्थना करें-

सुरभि त्वं जगमातर्देवि विष्णुपदे स्थिता।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस।।
ततः सर्वमये देवि सर्वदेवैरलंकृते।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरू नन्दिनि।।

‘हे कामधेनो! हे जगदंबे! हे स्वर्ग में रहने वाली माता रूपिणी देवि! हे सर्वदेवमयि! मेरे द्वारा अर्पित इस ग्रास का सेवन करें। हे सर्वदेवरूपिणी देवि! हे समस्त देवताओं के द्वारा अलंकृत माता नंदिनी! मेरा मनोरथ पूर्ण करो।’ इस के उपरांत रात्रि के समय विधि- पूर्वक देवता, ब्राह्मण, गौ, घोड़े आदि पशु एवं ज्येष्ठ और श्रेष्ठ बूढ़े-बड़े लोगों तथा स्त्री शक्ति स्वरूपा- दादी, माता, बुआ, मौसी आदि पूज्य स्त्रियों का आदर मान सहित आरती उतारें।
दूसरे दिन अर्थात् कार्तिक कृष्ण, त्रयोदशी (धन तेरस अथवा धन्वन्तरि त्रयोदशी) के दिन कहते हैं। इस दिन भगवान धन्वन्तरि जी ने दुःखी जनों के रोग निवारणार्थ जन्म लेकर चिकित्सा पद्धितियों में सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति ‘आयुर्वेद’ का विकास किया था। इसलिये उस दिन भगवान धन्वन्तरि जी का जन्म महोत्सव हर्षोल्हास के साथ मनाना चाहिये, और संध्या समय घर से बाहर यमराज के नाम से निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करके दीपदान करना चाहिये-

मृत्युनापाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम।।
धनत्रयोदशी के दिन दीपक जलाने से पाश और दण्ड लिये हुए मृत्यु के देवता यम तथा देवी श्यामा मुझ पर प्रसन्न हों।
कार्तिक कृष्ण 14 को नरक चतुर्दशी का उत्सव मनाया जाता है इस दिन सूर्योदय से पहले चंद्रोदय के समय सुगंधित तिल का तेल शरीर में लगाकर ठंडे जल से स्नान करना चाहिये, ऐसा करने से नरक का भय नहीं रहता। इस दिन तेल में लक्ष्मी जी का और जल में गंगा का वास रहता है। साथ ही यम, धर्मराज आदि 14 नामों से तर्पण भी करना चाहिये। फिर प्रदोष के समय स्कन्द पुराण के वचनानुसार धर्मराज के निमित्त-
ततः प्रदोषसमये दीपान् दद्यान्मनोरमान्।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु मठेशु च।।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, भगवती, गणेश आदि देवताओं के देवस्थानों (मंदिरों) में तथा सन्यासी महात्माओं के निवास स्थानों में सुंदर दीपों को प्रज्वलित करना चाहिये। इसी तरह पापों की और नरकदोष की निवृति के उद्देश्य से एक चौमुखा दीपक मुख्यद्वार के बाहर निम्नलिखित मंत्र पढ़कर जलाना चाहिये-

दत्तों दीपश्चतुर्दश्यां नरकप्रीतये मया।
चतुर्वर्तिसमायुक्तः सर्वपापानुत्तये।।
दीपक जलाते समय यह पंक्ति बोलना चाहिये- आज चतुर्दशी के दिन नरकासुर की प्रीति के लिए तथा समस्त पापों के विनाश के लिये चार बत्तियों का चौमुखा दीपक मेरे द्वारा अर्पित किया जा रहा है।
अगले दिन कार्तिक कृष्ण अमावस को दीपावली का प्रमुख महोत्सव मनाया जाता है। इसमें सर्वत्र दीपों द्वारा देवताओ की आरती की जाती है। दीपावली के दिन भी चतुर्दशी की तरह अरूणोदय काल में मंगल स्नान करना चाहिये और संध्याकाल में जप, हवन, स्वाध्याय, पितृ तर्पण, देवपूजन आदि नित्य कर्म से निवृत होेकर हनुमत्पूजन एवं पितरों की तृप्ति के निमित्त श्राद्ध भी करना चाहिये और प्रदोष काल में, पहले से ही लिपे पुते मकानों को पुष्पमाला, पताका, वंदनवार, आकाशदीप व दीपवृक्ष आदि से सजाकर, सुंदर आसन बिछाकर, चौकी आदि पर श्री नारायण सहित भगवती लक्ष्मी की रत्नमयी, धातुमयी, पाषाणमयी, चित्रमयी, अथवा सिकतामयी (बालू से निर्मित), मूर्ति का प्रधान रूप से तथा गणेश, शिव, पार्वती ब्रह्म, सरस्वती, हनुमान आदि अन्य देवताओं को स्थापित करें। स्वयं भी स्वच्छ वस्त्र आभूषण धारण कर घृत और तेल के अनेक दीपक जलावें और स्वस्तिवाचन कर वैदिक या तांत्रिक मंत्रों से विधि पूर्वक मनोनीग्रह के साथ स्थापित देवताओं का पूजन करें। पूजन विधि न जानने वाले ‘ऊँ महालक्ष्म्यै नमः’ केवल इसी मंत्र से भी पूजन कर सकतेे हैं। इसके बाद भगवती लक्ष्मी जी की प्रसन्नता के लिए गोपाल सहस्त्रनाम, लक्ष्मी स्तोत्र एवं ‘हिरण्यवर्णा हरिणीम्’ इस वैदिक श्री सूक्त का पाठ और हवन करें। इसी प्रकार अर्धरात्रि पर्यन्त पूजा करते रहें। प्रातः सर्वप्रथम गौमाता की पूजा से दिन का आरम्भ होता है-
घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु।।
धेनुरूप में स्थित जो साक्षात् लोकपालों की लक्ष्मी है तथा जो यज्ञ के लिए घी देती हैं, वह गोमाता मेरे पापों का नाश करें। तत्पश्चात् और भगवान का पूजन कर अनेक प्रकार के भोजन आदि पदार्थों का भोग लगाकर अन्नकूट नाम का उत्सव करें एवं रात्रि के समय बुभुक्षितों को विविध दानादि देकर, गंधाक्षत देकर, गंधाक्षत, पुष्पादि से पूजा कर, राजा बलि को प्रसन्न करें पूजन का मंत्र यह है-
बलिराज नमस्तुभ्यं दैत्यदानवान्दित।
इन्द्रशत्रोऽमराराते विष्णु सांनिध्यदो भव।।
‘हे दैत्यों एवं दानवों द्वारा वंदित, इन्द्र शत्रु देवताओं का विरोध करने वाले राजा बलि। तुम्हें नमस्कार है। अपने ही समान तुम मुझे भी भगवान विष्णु का सानिध्य (उनके समीप निवास) प्रदान करो।’ ऐसा करने से विष्णु भगवान प्रसन्न होते हैं। इस रात्रि में गोबर का सुंदर गोवर्धन पर्वत बना, दीपदान कर उसमें श्री भगवान का षोडशोपचार अथवा पंचोपचार (गंध, पुष्प, दीप, अक्षत्, और नैवेद्य) से पूजन कर इस प्रकार प्रार्थना करें-
गोवर्धनधराधार गोकुल त्राणकारण।
बहुबाहुकृतच्छाय गवां कोटिप्रदो भव।।
‘हे गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले! हे गोकुल को उबारने वाले तथा अनेक भुजाओं से छाया करने वाले प्रभो! हमें करोड़ों कामधेनु गाय प्रदान कीजिये।’ इस प्रकार पांच दिन का यह दीपमालिकोत्सव संपन्न होता है। यहाँ प्रसंग से यमद्वितीया भैयादूज का भी कुछ वर्णन कर देना उचित है। यह तिथि प्रतिपदायुक्त मध्याह्न में मानी जाती है। पूर्वकाल में यमुनाजी ने अपने भाई यमराज को इस दिन अपने घर बुलाकर प्रीति और आदर के साथ भोजन कराया था। तभी से यह तिथि यम द्वितीया नाम से प्रसिद्ध हो गई है। इस दिन पुरूषों को अपने घर भोजन न कर प्रेम पूर्वक अपनी बहन के हाथ का बना हुआ भोजन करना चाहिये। उस दिन यदि यमुना स्नान मिल जाये तो सोने में सुहागा का योग होता है। बहिन भाई को भोजन कराने से पूर्व इस मंत्र का उच्चारण करें-
एह्येहि मार्तण्डज पाशहस्त यमान्तकालोकधरामरेश।
भ्रातृद्वितीयाकृतदेवपूजां गृहाण चार्घ्यंं भगवन् नमस्ते।।
भ्रातस्तवानुजाताहं भुङ्क्ष्व भक्तमिदं शुभम्।
प्रीतये यमराजस्य यमुनायां विशेषतः।।
‘हे सूर्यपुत्र! हे पाश धारण करने वाले! हे यम! हे काल! हे प्रकाश को धारण करने वाले देवताओं के स्वामी। भ्रातृद्वितीया को हुई मेरी देवपूजा तथा अर्ध्य दान स्वीकार करें। हे भगवन्! आपको मेरा नमस्कार है! हे भाई। हे कल्याण रूप! मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ, यमराज की प्रसन्नता के लिए विशेषकर यमुनातट पर तुम मेरे द्वारा अर्पित इस अन्न कोे स्वीकार करो।’ भोजन करके भाई भी बहिनों का यथाशक्ति उत्तमोत्तम वस्त्र, अलंकार भोजन सामग्री आदि देकर उचित सम्मान करें। इस प्रकार भोजन कराने से भाई की उम्र बढ़ती है एवं उसे धन-धान्य एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। बहन को भी पुत्र प्राप्ति आदि सब सुखों का लाभ होता है, पति की आयुवृद्धि होती है।
सनातन धर्म में विश्वास रखने वाले सभी मनुष्यों का यह प्रथम कर्तव्य है कि श्रद्धा और भक्ति से इस धार्मिक उत्सव को मनावें। यह उत्सव मानव जाति तथा राष्ट्र की सौभाग्य सूचक माता लक्ष्मीजी का पर्व है। प्राचीन काल में जब यह त्यौहार प्रेम और उत्साह से मनाया जाता था, तब भारतवर्ष उन्नति के शिखर पर आसीन था। भगवती लक्ष्मीजी अपनी पूजा से प्रसन्न हो यहाँ पर निरंतर वास करती थी। यहां के किसान सम्पन्न थे, इंद्रदेव समय पर वर्षा करते थे। रत्नगर्भा वसुंधरा अनेक रत्न सुवर्ण आदिधातु एवं हर प्रकार के अन्न जौ, चावल गेहूँ आदि विविध धान्य और औषधियाँ उत्पन्न करती थी। गौमातायें हष्ट-पुष्ट हो कर दूध, दही, घृत की नदियाँ बहाती थीं। (आज की तरह मनुष्य को नकली दूध और नकली घी नहीं खाना पडता था।), तब भारत देश सोने की चिड़िया कहलाता था। ब्राह्मणादि चारो वर्ण प्रसन्नता पूर्वक अपने धर्म का पालन करते हुये तथा संगठित रहकर साथ-साथ प्रेमपूर्वक रहते हुये चौदह विद्याओं एवं चौसठ कलाओं में निपुणता प्राप्त कर, ब्रह्म चिंतन में तत्पर रहकर इस लोक में आनंदपूर्वक रहते थे।
Dr.R.B.Dhawan Guruji
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